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देवबंद के बहाने.....भारतीय इस्लाम....

देवबंद के बहाने.....भारतीय इस्लाम....

र्म या संप्रदाय की बात करे तो "इस्लाम" महान धर्मो में एक  है. धर्मग्रंथो की बात करे तो "क़ुरानशरीफ "  से ज्यादा  पाक  और पवित्र धर्मग्रन्थ शायद ही कोई मिले. अगर संतो की बात करे तो "मोहमद साहब " से बेहतर संत विरले ही मिलेंगे. लेकिन अफ़सोस मोहमद साहब  से बाद की पीढियों ने इस्लाम की महानता,पवित्रता एवं सम्पूर्णता को एक अलग हीं  मायने दे दिए. उन्होंने इस्लाम की महानता का अर्थ प्रचार और प्रसार माना, तो पवित्रता को रुढियो में जकड सम्पूर्णता के अर्थ को समझने में गलती कर दी..

जिसके फलस्वरूप इस्लाम तो वही रहा, लेकिन इसको मानने वाले पिछड़ते चले गए. रूढ़िवादिता अज्ञानता और प्रचार प्रसार को जो दौर चला इसका गवाह इतिहास है. विश्व के कई देश इस्लामिक हो गए. इस्लामिक होना गलत नहीं पर इस्लाम के नाम पर दकियानूसी और हिंसा परोसना गलत है. प्राचीन भारतीय उपमहाद्वीप में भी इसका फैलाव बड़ी तेज़ी से हुआ. भारतीय संस्कृति का लचीलापन, इसकी विस्तृत सोच ने इस्लामियत को  तो अपना लिया लेकिन कट्टरवादी नहीं बने. भारतीय समाज में एक नए शब्द का प्रचलन शुरु हुआ जिसे "भारतीय इस्लाम" कहा जाता है. जो यहाँ आक्रमणकारी  बन कर आये थे,वह सब यहीं के होकर रह गए. सम्राट अशोक के साथ अकबर भी को हम भारतीय अपने महान चक्रवर्ती सम्राटो में शुमार करते है.

यहाँ तक तो सब ठीक  था, दुरिया तब बढने लगी जब ब्रिटिसर्स ने अपने पांव  फ़ैलाने शुरु किये. फुट डालो शासन  करो की नीति के तहत अपने साम्राज्य का विस्तार शुरु कर दिया. बात उस दौर की है जब १८५७ में हुई प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेजो ने विफल कर दिया था. जिसके पश्चात भारतीय इस्लामी विद्वानों के एक समूह ने देवबंद विश्व विद्यालय की स्थापना की. इसका उदेश्य उपमहाद्वीप में पश्चिमी देशों के फैलाव एवं भौतिकतावादी सभ्यता को रोकना था. तत्कालीन विद्वानों  को डर था की कहीं यह विस्तार उनके धर्म को को न निगल जाये. साथ ही साथ मुसलमानों को उन परिस्थितियों खतरों से बचाना था जो उनके धर्म के लिए हानिकारक हो.

भारत में एक केंद्र के स्वरुप  में  देवबंद नामी नगर में इस्लामी अरबी मदरसा  की स्थापना हुई.यह विश्वविधायालय दारुल- उलम से सम्बंधित है. शुरूआती  दौर के  इसके प्रमुख व्यक्तित्वों में मोहमद कासिम, रशिम अहमद गंगोही आदि शामिल हैं. गहरी जड़ो वाला  इस  बौध्विक  मदरसे  ने अपने हर स्नातक पर गहरी छाप छोड़ी है. यह एक सामान्य विश्वविध्यालयो से अलग, जिसकी अपनी एक विशिष्ट पहचान है.इसके अपने कुछ नियम,कायदे-कानून.मत सिधांत आदि है

फिलहाल देश का यह पवित्र विश्वविद्यालय विवादों के दौर से गुजर रहा है .वह भी सिर्फ इसलिए की इसके वाइस  चांसलर मौलाना गुलाम मोहमद वस्तानावी ने गुजरात मुसलमानों में हो रहे विकास  के लिए  नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर दी थी. वस्तानावी  वैसे  शख्स है, जिन्होंने इस्लाम समाज की कडवी सचाई,इसके जरूरतों और उन्नति आवश्यकता  को समझा है. इस असाधारण शख्स  ने १९७९ में महाराष्ट -गुजरात सीमा पर जनजातिय छेत्र  में महज़ ६ बच्चों के साथ एक झोपड़ी में  शुरू  हुए मदरसे को "२ लाख " के छात्रों वाले संस्थान में बदल दिया

शायद  अभी इस्लाम समय के उस चौराहे  पर खड़ा है, जहाँ  उसे यह चुनना है वह धार्मिक कर्मकांडी समाज की संपत्ति बने या  शैक्छिक उदारवादी विचारधारा में अपना भविष्य ढूंढे. रूढ़िवादिता ,हठधर्मिता, एवं कर्मकांडी लोगो के वर्चस्व ने हीं अब तक इस्लाम को उसके वास्तविक इस्लाम से दूर रखा है. मोहमद साहब के उपदेशो, कुरान शरीफ के पाक आयातों को अपने स्वार्थ के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश करने वालो की जमात नहीं चाहती की एक आम मुसलमान प्रगति करे.

अज्ञानता,निर्धनता एवं विचारो की दुर्बलता का एक भयावह उदहारण "अमेरिका और इन जमातों  का मिल कर अफगानिस्तान को  तालिबान बनाना है.स्वार्थ सिधि  के लिए किया गया यह कुकृत्य आज खुद खुद अमेरिका  सहित पुरे विश्व के लिए खतरे का सबब है. इस्लाम समाज अभी भी  कहीं न कहीं मध्यकालीन सोच में जी रहा है.उस समय  समाज में पोप, पंडितो, और मौलवियों की तूती बोलती थी. जहाँ पोप के साम्राज्य को पूंजीवादी व्यबस्था ने ध्वस्त किया, तो वही पंडितो  के तिलिस्म  को पश्चिमीकरण के नक़ल ने तोडा. आज भी इनका अस्तित्व है,परन्तु इन्हें उतना ही महत्व दिया जाता  है जितने के यह वास्तविक हक़दार है.

अफ़सोस मुस्लिम समाज अभी  भी धार्मिक कर्मकांडी समूह की मिलकियत से  बाहर नहीं निकल पाया है.लेकिन कोशिश जारी है, सुगबुगाहटों और छटपटाहटों  का दौर शरू हो चूका है. अपने झूठे  अस्तित्व को बचने की लालच में  ये कर्मकांडी  समूह इस्लाम के महान शब्दों, नामों  का दुरूपयोग करते है.अब देखना यह है की एक साधारण मुसलमान की सम्पूर्णता और पवित्रता की चाहत, रुढ़िवादियों, हठवादियों  की स्वार्थ परक लालसा पर कब भरी पड़ती है. जिस दिन ऐसा होगा, उसी दिन से वास्तविक  इस्लाम का पुनः अभुय्दय होगा....

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इस स्वर्ग से तेरा नरक भला......

लाल चौक की कहानी तथ्यों की जुबानी


लाल चौक पर पहले कई बार पाकिस्तान का झंडा, हरा इस्लामिक झंडा और एक बार सफेद झंडा फहराया जा चुका है। पिछले कुछ सालों में यहां कई बार 14 अगस्त को इस्लामिक और पाकिस्तानी झंडा भी फहराया गया है। 1990 में 14 अगस्त को यहां पाकिस्तानी झंडा फहराया गया। २६ जनवरी, १९९२ में भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं के साथ मुरली मनोहर जोशी ने लाल चौक पर झंडा फहराया था। 27 जून 2008 को अमरनाथ भूमि विवाद के समय यहां हरे झंडे फहराए गए थे। गौरतलब है कि श्रीनगर में होने वाले  कई बम धमाके और मुठभेड़ों का लाल चौक गवाह रहा है।
पिछले दो सालों में लाल चौक से महज 200 मीटर दूर सीआरपीएफ के बंकर के पास भी तिरंगा नहीं फहराया जा सका है। 1993 में लाल चौक पर बीएसएफ का बंकर बनाया गया था, हालांकि 2003 में इस बंकर को हटा दिया गया। 2003 से 2007 तक यहां सीआरपीएफ का बंकर रहा। 2007 के बाद से यहां पर कोई बंकर नहीं रहा। 2008 में अमरनाथ भूमि विवाद के बाद यहां सुरक्षा बढ़ा दी गई। पिछले साल गर्मियों में उपद्रव के बाद पिछले 6 महीने से लाल चौक पर तारबंदी की गई है। लाल चौक पर सफेद झंडा भी फहराया गया है। 7 नवंबर 2010 को जम्मू-कश्मीर एनजीओ फोरम के सदस्यों ने लाल चौक पर सफेद झंडा फहराया था। हालांकि एनजीओ के सदस्यों पर कुछ उपद्रवी युवाओं ने हमला कर दिया था। घाटी के इतिहास में यह पहला दिन था जब लाल चौक पर सफेद झंडा फहराया गया था।


अंधेर नगरी चौपट रजा..टके सेर खाजा टके सेर भाजा....


जब लाल चौक पर इस्लामिक झंडा ,पाकिस्तानी  ध्वज न जाने कितनी पर फहरा दिए जाने के बाद भी, कोई हो हल्ला नहीं, कोई प्रश्न नहीं कोई विवाद नहीं कोई उबाल नहीं तो फिर तिरंगे पर बबाल क्यों..सिर्फ  इसलिए  ताकि इसी बहाने सरकार रुष्टो को तुष्ट कर सके और,बीजेपी अपना राष्टवादी कार्ड खेल सके और अलगाववादी अपना  विलाप आलाप सके...कुछ तो शर्म करो..कब तक बाटोगे देश को और कितना बाटोगे,किन किन वजहों से बाटोगे..कभी तो कुछ ऐसा कर जायो   की आगे आने वाली पीढ़ी कहे,इस देश का इतिहास  कहे ..नहीं अमुक दौर में अमुक नेतायो  की फौज ऐसी थी ..जिसने जिसने स्वार्थ छोड़ कर परमार्थ पर ध्यान दिया ...सायद ये सपना ही रह रह जाये खैर....

फिर आपत्ति कहाँ ...राष्ट ध्वज से जुड़े नियम...



26 जनवरी 2002 विधान पर आधारित कुछ नियम और विनियमन हैं कि ध्‍वज को किस प्रकार फहराया जाए:
क्‍या करें:


* राष्‍ट्रीय ध्‍वज को शैक्षिक संस्‍थानों (विद्यालयों, महाविद्यालयों, खेल परिसरों, स्‍काउट शिविरों आदि) में ध्‍वज को सम्‍मान देने की प्रेरणा देने के लिए फहराया जा सकता है। विद्यालयों में ध्‍वज आरोहण में निष्‍ठा की एक शपथ शामिल की गई है।

* किसी सार्वजनिक, निजी संगठन या एक शैक्षिक संस्‍थान के सदस्‍य द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज का अरोहण/प्रदर्शन सभी दिनों और अवसरों, आयोजनों पर अन्‍यथा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के मान सम्‍मान और प्रतिष्‍ठा के अनुरूप अवसरों पर किया जा सकता है।

* नई संहिता की धारा 2 में सभी निजी नागरिकों अपने परिसरों में ध्‍वज फहराने का अधिकार देना स्‍वीकार किया गया है।

क्‍या न करें:


* इस ध्‍वज को सांप्रदायिक लाभ, पर्दें या वस्‍त्रों के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है। जहां तक संभव हो इसे मौसम से प्रभावित हुए बिना सूर्योदय से सूर्यास्‍त तक फहराया जाना चाहिए।

* इस ध्‍वज को आशय पूर्वक भूमि, फर्श या पानी से स्‍पर्श नहीं कराया जाना चाहिए। इसे वाहनों के हुड, ऊपर और बगल या पीछे, रेलों, नावों या वायुयान पर लपेटा नहीं जा सकता।

* किसी अन्‍य ध्‍वज या ध्‍वज पट्ट को हमारे ध्‍वज से ऊंचे स्‍थान पर लगाया नहीं जा सकता है। तिरंगे ध्‍वज को वंदनवार, ध्‍वज पट्ट या गुलाब के समान संरचना बनाकर उपयोग नहीं किया जा सकता।


नेहरु उबाच......



1947 में जवाहरलाल नेहरू ने यहां ऐतिहासिक  रैली को संबोधित किया था। रैली नेहरू ने कहा था, 'आप मेरे हो गए हो मैं आपका। अब हम एक हो गए हैं।


कश्मीर नीति या अनीति..


शायद नेहरु जी को भी ये नहीं पता था की उनका ये कश्मीर लगाव या प्रेम आगे आने वाले  भविष्य में भारत के सामने सिरदर्द बनने वाला है...जैसे ध्रितराष्ट के पुत्र मोह के कारण महाभारत हुआ ..उसी  तरह नेहरु जी की गलत कश्मीर  नीतियों  के कारण कई बार  भारत पाक युद्ध हो चूका है ..उससके बाद आने वाली सरकार भी  नहीं संभाली..और महान सेकुलर भारत के महान उदहारण को जैसे तैसे अपनी  लुंज पुंज  नीतियों से अपने  साथ रखने की कोशिश करती रही..और आज वही भस्मासुर आपने पालक पोषक को ही भस्म करने को तैयार  खड़ा है ....

क्या वाकई हम एक दूजे के हो गए.....



अगर जम्मू और कश्मीर महाराज हरी सिंह के हस्ताक्छर   के बाद भारत का था तो फिर कबीलाई युद्ध के बाद  नेहरु संयुक्त राष्ट संघ क्यों  क्यों गए ..?
कहने को तो जम्मू और कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है..लेकिन इस अंग को सामान्य से अधिक विशेष लाड दुलार  (धारा ३७०)...?
अगर भारत  ek सेकुलर राष्ट है.तो फिर वहां से कश्मीरी पंडितो का विस्थापन...उनके पुनर विस्थापन  की व्यबस्था नहीं ..?
अगर जम्मू भारत का ताज है है तो अलगाववादियों को इतनी अहमियत...

शायद



जम्मू कश्मीर एक विकट और जटिल समस्या  है जिसका  निदान एक दिन में संभव नहीं  है ..यही कहते कहते  शायद पीढ़िया गुज़र जाएँगी...मगर इस समस्या का निदान नहीं निकलेगा..और जिसका भुगतान भुगतेंगी आने वाली पीढ़िया और वर्तमान आम निरीही कश्मीरी ..जो ऊपर वाले से भीख मांगेंगे और कहेंगे ..


या अल्लाह इस स्वर्ग से तेरा नरक भला......





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ज़रा सोचिये


·         कुछ दिनों पहले यासीन मालिक ने कश्मीर के लालचौक पर तिरंगा फहराने की धमकी दी, वहा के मुख्यमंत्री ने भी उनका समर्थन कर दिया कोई कुछ नहीं बोला सिवाए उस पार्टी के जिसके राजनितिक अजेंडे में राष्टीय मूल्यों के लिए तो नहीं लेकिन पार्टी मूल्यों के लिए यह शामिल था,जिस पर अभी राजनीति ज़ारी है .अकसर सयद अहमद शाह गिलानी और अरुंधती राय जैसे लोग राष्ट के विरुद्ध वयांवाजी करते है, तब भी कोई बात नहीं,लेकिन वियानक सेन जैसे लोग पर नक्सलियों के सन्देश वाहक के आरोप में ही "राष्द्रोह" का मुकदमा लाद दिया जाता है. अज़मल कसाब और अफज़ल गुरु जैसे लोगो का दोष सिद्ध होने के बाबजूद उन्हें फांसी पर नहीं चढ़ाया जाता है .लेकिन एक सोची समझी योजना के तहत किसी खास संगठन को अत्तंकी करार देने की सुनियोजित मुहिम शुरु कर दी जाती है ..सरकार जाँच एजेंसी को अपनों को बचाने और विरोधियो को फसाने के लिए उपयोग करती है....क्या यही सेकुलर इंडिया और फ्री इंडिया का सिधांत है जो हमे हमारे संविधान से हमे मिला है ...क्या आपको नहीं लगता सेकुलर और कॉमुन्लासिम का उपयोग वोट बैंक की राजनीति से प्रभावित है.....एक तरफ एक लाख चिहातर हज़ार करोर रुपए के घोटले को केग की गलती मान ली जाती है..तो वही दुसरे तरफ मुंबई हमले में शहीद हर हेमंत करकरे की शहदात पर सवाल उठा दिए जाते की उन्हें किसी धार्मिक संगठन ने मारा है,और सबुत तक पेश कर दिए जाते है ...अस्सी हज़ार करोर के कॉमनवेल्थ घोटाले जाँच का ड्रामा शुरु हो जाता है..हर दुसरे तीसरे महीने मुद्रा इस्फृति की दर अपना नया रिकॉर्ड कायम करती है.....इन सवालों से त्रस्त आखिर आम इन्सां करे तो क्या करे...शायद वही जो संगठनात्मक रूप से असीमानंद जैसे लोगो ने किया और निजी स्तर पर पूर्णिया के विधायक की हत्या करने वाली उस महिला ने...दोनों के कृत्यों को कही से भी उचित नहीं ठराया जा सकता है..लेकिन सोचने वाली वाली बात ये है की आखिर लोग ऐसा आत्मघाती कदम क्यों उठाते है...क्यों किसी को आपने जान की भी परवाह नहीं होती है..क्यों लोग अपना आगे पीछे भी नहीं सोचते है...शायद कही कही आज का शासन . आज की पार्टिया अपने हितो और स्वार्थो के लिए सामाजिक एवं राष्टीय हितो की क़ुरबानी देने को तयार है.....आपका क्या कहना है....ज़रा सोचिये ...??

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