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क्यूंकि मैं इंसान हूँ

आज हूँ मैं इतना शर्मिंदा
क्यूंकि मैं इंसान हूँ
अपने गम से कम
कर ज्यादा आंखे नम
दुसरो की ख़ुशी से
परेशान हूँ
क्यूंकि मैं इंसान हूँ


हीन भावना
कुंठाग्रसित
अपनी अक्रमन्यता से त्रसित
कर बंदरो सी हरकते
शायद मैं नादान हूँ
क्यूंकि मैं इन्सान हूँ


छीन कर तोड़ कर
फोड़ कर मार कर
क्या जीत पाउँगा मैं
इस बात से अनजान हूँ
क्यूंकि मैं इंसान हूँ


तिड़कमे भिड़ा
छल कपट लगा
छोटा सा कुछ पा
रह जाता इस भरम में
अब तो मैं भगवान हूँ
क्यूंकि मैं इंसान हूँ


किसे कहूँ कितना कहूँ
किस बात को कैसे कहूँ
आज मैं हूँ कितना दुखी
क्यूंकि मैं इंसान हूँ.....

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बुद्धिजीवी और मौत की छाया

एक खुशनुमा शाम
मैं निकला 
जिन्दगी की अँधेरी 
गलियों के
सुनसान सफ़र में
मंजिल की तलाश में
निकलते ही पीछे से
एक बुद्धिजीवी ने 
टोका
मैंने पूछा
भाई मेरे राह को
क्यूँ रोका
जबाब मिला 
ए ! सिरफिरे
जमाना ख़राब है
रात होने को है
कहाँ जाता है
पढ़ा नहीं
उधर जाना मना है
क्यूँ अपनी
मौत बुलबाता है
मैंने कहा
ये मेरे ख्वाबो की 
राह है
मुझे बस मेरी मंजिल की
चाह है
आपको धन्यबाद
बतलाता हूँ
अब मैं
आगे जाता हूँ
रात हुई
छुटा शहर
चल रहा
अभी सफ़र
तन्हाइयों में
थोड़ी झिझक में
कुछ मौत के
खौफ में
अचानक
एक कुत्ते के
भौंकने की 
आवाज़ आई
राहत मिली मुझे
सोचा
अब अकेला नहीं 
हूँ मौत भाई
मैं और मेरे 
साथ
वो कुत्ता
उसने भी मेरे संग
कुछ देर बितायी
फिर कहा
भाई
अब मैं जाता हूँ
क्यूंकि शहर के
बुद्धिजीवी भछको
का तो मैं ही 
एक रछक हूँ
अगर मैं न गया
तो 
मेरी वफ़ादारी पर
उंगुली उठाई जाएगी
फिर जाँच कमीशन
बैठा
मुझे सजा 
सुनाई जाएगी
मैंने कहा धन्यवाद
आपको
साथ निभाने का
करो दुयाएँ 
मेरे लिए
मेरी मंजिल पाने का
था हैरान कुत्ते
की समझदारी पर
साथ में हो आया गर्व
उसकी वफ़ादारी पर
आधी रात ढल गयी
चौराहे पर आते आते
मैं
बेचैन परेशान
मंजिल का न कोई
नामो निशान
शायद सही रास्ते
आगे बढ़ा
 हुआ
ठिठक कर खड़ा
रोंगटे हो गए खड़े
मेरे पग आगे न बढ़े
ये कैसी
साया है
क्या उस बुद्धिजीवी 
द्वारा बताई
यही मौत की
छाया है
मैंने डरते-डरते
अपनी गर्दन घुमाई
आंख खोलते हीं
मुझे खुद पर
हँसी आयी
ओह ! यह तो मेरी हीं
साया  है
हर राह साथ चलने वाली
मेरी हीं छाया है
मेरी तन्हाई है
मेरी परछाई है
यह आँखों का भरम है
बस मौत का वहम है
अब सामने मुझे
मेरी मंजिल 
आई नज़र
बढ़ चला 
मैं उस डगर
क्या ?
बुद्धिजीवी
अपनी ही छाया से
डरते हैं ?
शायद !
इसलिए तो 
मंजिल की राहों में
प्रवेश निषेध
का चिन्ह लगाये रहते हैं
प्रवेश निषेध का चिन्ह लगाये रहते हैं .........

बुद्धिजीवी और मौत की छाया 

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न जाने हम क्या ढूंढते हैं...(मेरी लिखी पहली कविता)..

खामोश
समंदर की गहराइयों में
अँधेरी 
रातो की परछाइयों में
न जाने 
हम क्या ढूंढते हैं
बिखरे
हैं ख्वाब मेरे
अधूरी
है जिन्दगी मेरी
इन बिखरे तिनकों में

न जाने
हम क्या ढूंढते हैं
आँखों में
है मंजिल मेरी
दिल में 
कुछ अरमा मेरे
जिन्दगी की
इन 
पथरीली राहों में
न जाने
हम क्या ढूंढते हैं
एक छोटा 
सा सपना मेरा
न इस जहाँ
में कोई 
अपना मेरा
शायद
अँधेरी इन
गलियों में
रोशन एक
दिया ढूंढते हैं
न जाने
हम क्या ढूंढते हैं.............
 
 






 
 

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तन्हाई का आलम

तन्हाई के इस आलम में
तन्हा तन्हा सा हूँ मैं
ख़ामोशी के इस मंज़र में
सहमा सहमा सा हूँ मैं
बेखबर सा बेसबर सा
फिरता मारा मारा
अब कोई न आने वाला
शायद मैं बेचारा
तन्हाई के आलम में....
वीराने से रास्ते
वीरानी सी छाई
पल भर पहले साथ थे
अब ख़ामोशी हैं पसरायी
तन्हाई के इस आलम में...
किस बात से रूठ गयें वो
किस बात पे टूट गयें
शायद गलती मेरी हो
जो हम राहों में छुट गयें
तन्हाई के इस आलम में...
ये क्या हुआ
और क्यों हुआ
क्या गलत था क्या सही
मुझको तो कुछ पता नहीं
 पर जिस बात की सजा मिली
वैसी भी कोई खता नहीं
तन्हाई के इस आलम में
ना रह तन्हा तन्हा तूं
ख़ामोशी के इस मंज़र में
ना रह सहमा सहमा तूं
मंजिले आनी अभी
रास्तें हैं बाकी
किस बात का गम तुझे
ना रह ठहरा ठहरा तूं 
तन्हाई के इस मंज़र में
ना रह सहमा सहमा तूं.......... 

     

    

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मत नाम रखो भोजपाल

अगर अपनी सांस्कृतिक स्मृति सहेज कर रखना गलत है..मत नाम रखो भोजपाल...अगर अपने पुरखो को इज्ज़त देना गलत है..तो मत नाम रखो भोजपाल..अगर ऐतिहासिक विरासत को पहचान देना गलत है..तो मत नाम रखो भोजपाल..अगर भोजपाल देहाती,अटपटा और पिछड़ा शब्द लगता है तो..मत नाम रखो भोजपाल..लेकिन कृप्या करके..राजा भोज जैसे महान हस्ती की आड़ में राजनीति तो मत करो..कृपया करके उन्हें किसी विशेष दल की सांस्कृतिक धरोहर  बता राजा भोज का अपमान तो मत करो..पिछले तीन महीने में मध्यप्रदेश में ८९ किसानो(सरकारी आकडे) ने आत्म हत्या की है..यह संख्या कम नहीं है..मगर चंद  औपचरिकता के बाद  किसी ने कुछ बोलने की जहमत नहीं उठाई..मगर भोपाल का नाम भोजपाल रखने की बात क्या चल पड़ी मानो भोपाल पर पहाड़ टूट पड़ा..सेव भोपाल जैसे अभियान चलाये जाने लगे..रैलियां करने की बात शुरु हो गयी..राज्य की कई अन्य समस्यों पर ध्यान गया..ताकि किसी बहाने सरकार को रोका जा सके..गरीब किसानो की याद आ गयी..जिन बेचारो का क्या..उनके लिए न तो भोपाल का कोई मतलब  हैं न भोजपाल का..ये पेट भरे बुद्धिजीवी वर्ग का एक नया तमाशा है..जिनको अपना मनोरंजन करना है..इसमें रोमांच,साहसिकता और ग्लेमर भी है...तरकश में विचार्रो के तीर भरे जायेंगे..वाद विवाद का नया मंच होगा..ज्ञान का आडम्बरपूर्ण  प्रदर्शन ..फिर भोपाल हो या भोजपाल...कोई फर्क नहीं पड़ेगा..इनके लिए तमाशा खतम..पैसा हज़म वाली बात होगी.. काश इतनी जागरूकता हमने महंगाई,.बेरोज़गारी..कालेधन..किसान आत्म हत्या..घोटाले और भ्रष्टाचार  के लिए दिखाई  होती.तो शायद इस देश की तकदीर ही बदल गयी होती...जरा सोचिये......

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आम आदमी

आम आदमी

कम रोशनी
उजियारे में
घुप्प घना अंधियारे में
किसी कोने किनारे में
कट रही मेरी जिंदगानी
हाँ मैं हूँ आम आदमी
और यह हैं मेरी कहानी
कभी प्राण था
मैं शान था
और इस धरा का मान था
अब मैं बेकार हूँ
मजबूर हूँ
और शायद लाचार हूँ
लालच की लुट में
कर रहा वह नादानी
हाँ मैं हूँ आम आदमी
और यह हैं मेरी कहानी
बिलख बिलख
कर रोता मैं
तड़प तड़प
कर हँसता
जिसको मैंने अपना माना
खो गया वह दीवाना
वाष्प बन बिखर गए
ख्वाब ख्वाहिशे और रूमानी
हाँ मैं हूँ आम आदमी
और यह हैं मेरी कहानी
रह गया हूँ
मृतप्राय
विलुप्त होती
चेतना
वर्तमान के इस दौर में
विरह व्यथा की वेदना
उलझ उदार की आग में
मिट रही मेरी निशानी
हाँ मैं हूँ आम आदमी
और यह है मेरी कहानी..........   
 
 


 

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