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एक क्रिकेटर की असफल दास्तान.......

 एक क्रिकेटर की असफल दास्तान .. उसकी ख्वाहिशें..उसका बचपन.. 

जिन्दगी वैसे नहीं चलती जैसा हम या आप सोचते हैं. बहूत विरले ही होते है जिनके इशारो पर जिन्दगी नाचती है. और मै भी कोई अपवाद नहीं हूँ. जनवरी का महिना था, मगर वर्ष २०१०. लोग खुशियों से सरोबर होकर एक दुसरे को बधाई देने में व्यस्त थे. लेकिन मैं तन्हा सा जिन्दगी के वैसे मोड़ पर खड़ा था, जंहा मुझे अपनी  पिछली राहों को अलविदा कहना था दिल रो रहा था, कठिन समय था...

नए वर्ष की अजीब सी शुरुआत  थी वो, कश्मकश, बेबसी, और बेचैनी भरा माहौल. साथ में जेहन में तैरता एक सवाल,क्या एक दशक के मेहनत का यही अंजाम था ? हाँ  एक दशक, पुरे एक दशक. ठीक २५ दिसम्बर २००० को मैंने पहली बार बल्ला पकड़ा था. वो जोश, वो ख़ुशी और कुछ कर गुजरने का जूनून. युवा होते हर किशोर की तरह मेरी आंखों में भी एक सपना था...एक और सचिन...

भाग्य के घोड़े एवं नियति के लगाम के आगे आज तक किसकी चली है, जो मेरी चलती. जी तोड़ मेहनत, अथक परिश्रम के बाबजूद क्रिकेट में मुझे उतनी सफलता प्राप्त नहीं हो सका जितने का मैं  हकदार था. इस पुरे परिदृश्य पर पैनी नज़र डालने के बाद मुझे कई कारण नज़र आये.  इनमे  सबसे बड़ा कारण मेरे माता-पता की तटस्थता  थी शायद. यह बात उतनी ही सत्य है जितना भाग्य का लेखा, इंसान माता पिता के आशीर्वाद के बगैर  कुछ भी नहीं कर सकता हैं. उन्हें अच्छे से पता था की मै कहीं और ज्यादा  बेहतर कर सकता हूँ.

कितनी जल्दी बीत गए १० साल. इतनी जल्दी,अरे नहीं ऐसा कैसे हो सकता है. मानो अभी  कल ही की तो बात हो,अब तक कानो में यही शब्द गूंजता है "अमर कल १० बजे से मैच है,९ बजे कॉलेज ग्राउंड  पहुच जाना". फिर करवटों में बीतती रातें, हडवडा  कर सुबह ५ बजे ही जाग जाना.बार -बार किटबैग  को ठीक करना, और अंत में सारा ध्यान मैच पर केन्द्रित कर देना. सुबह मैच  की उतेज़ना, रन बना कर बल्ले को हवा में लहरा देना,फिलडिंग  करते समय आँखों में चश्मा, होठों पर चुइंगम और बार बार कॉलर खड़ा करते रहना. अंत में जीत अनकही ख़ुशी,या हार का खामोश गम. शाम में पार्टी, अगली सुबह बेसब्री के साथ स्थानीय अखबार में फोटो सहित खबर का इंतज़ार. किस धुंध में गुम हो गए सब. बस यादें ,यथार्थ कुछ भी नहीं..


जो भी हो, जिस तरह २०१० की जनवरी मेरे लिए वर्तमान को बदलने का अंदेशा लेकर आई थी. उसी तरह २०११ की यह जनवरी मुझे मेरे नए भविष्य का संदेशा दे रही है. लगभग  वही माहौल. लोग एक दुसरे को बधाई देने में व्यस्त, और मैं खुद में फिर से अकेला. इसबार जेहन में कौंधता दूसरा सवाल "क्या यही मेरे नए भविष्य की शुरुआत है "? शायद हाँ क्रिकेट ने मुझे बहूत कुछ तो नहीं दिया, लेकिन एक सकारात्मक सोच जरुर दे दिया. हर हाल में जितने की ललक, और हर हार से जीतने का सबक.  जिन्दगी में कुछ भी व्यर्थ घटित नहीं होता है. २०१० की जनवरी में खुद से  पूछे गए सवाल का जबाब मुझे मिल चूका था, " एक दशक की मेहनत का परिणाम मुझे  क्या मिला" ..


खैर, भूत  तो बीता हुआ कल है , और यादें बस एक सुखद अहसास. इन दोनों पर किसी का कोई जोर नहीं. समय का रथ इन्हें हमसे इतनी  दूर कर देता है की हम इन्हें चाह कर भी नहीं जी सकते हैं. अगर मेरा वश चले तो इन यादों को पिरो कर, उन लम्हों को संजो कर कुछ ऐसा लिख जाऊं जो वाकई अद्भुत हो. जिसमे सिर्फ क्रिकेट न हो,जिन्दगी के हर एक  पहलु  का समावेश हो. मेरे प्रति मेरे दोस्तों सहयोग, सम्बन्धियों का रवैया और जिन्दगी के प्रति मेरा नजरिया, सब कुछ शामिल हो. मेरी जिन्दगी के पिछले दशक के अंतिम में आये उस शख्स का ज़िक्र भी, जो आकर तो चला गया, लेकिन जिन्दगी के प्रति मेरी सोच को बदल गया. उसका यह यह कहना " अमर माना तुम अच्छे क्रिकेटर हो, लेकिन तुम  इससे कही ज्यादा बेहतर के राइटर बन सकते हो"...

आज मैं फिर आश्चर्यचकित  हूँ,अपनी इस बात को लेकर की जिन्दगी में व्यर्थ कुछ भी नहीं घटता  है.पता नहीं जिन्दगी कैसे  बदल गयी और वक्त  ने मुझे उस मुहाने पर ला खड़ा कर दिया, जहाँ से मैं उस शख्स की बातों का बेहतर समझ सकता हूँ.  वो नाम आज मेरी जिन्दगी में कहीं नहीं है. अब मेरा उससे दूर- दूर तक कोई रिश्ता नहीं  है. बस है तो लबो पर, उसके ताउम्र खुश रहने की दुयाएँ, और साथ में जीवन जीने का नया दृष्टीकोंण.

इन सभी घटनाक्रमों पर मैं एक बेहतरीन उपन्यास लिख दूँ, और लोगो से कहूँ की यह आपके रोम रोम को झंकृत कर देगा. जिसमे हर युवा अपनी जिन्दगी की कहानी द्धुन्द्धेगा. लेकिन मानेगा कौन, सब कहेंगे भावनायो  के ज्वार में बहक गया हूँ.  अगर यही बात चेतन भगत, जे.के.राउलिंग कहें तो लोग हाथों-हाँथ लेंगे. शायद इसे ही कहते हैं ब्रांड वैल्यू. इसके लिए भी कहीं न कहीं से शुरुआत की जरुरत और, किसी न किसी पर विश्वास की आवश्यकता होती है. आखिर ये ब्रांड वैल्यू  निर्मित कैसे होता है. सोचते- सोचते मुझे इसका जबाब मिल ही गया.एक - दो साल में कोई ब्रांड नहीं बन जाता है. इसके पीछे तो अनेक वर्षो का अथक परिश्रम और एक कुशल सतत मार्गदर्शक होता है. वैसे शुरुआत में हर कोहिनूर कोयल के खान में ही रहता है, एवं कुंदन को आग में तपना ही पड़ता है.


२०११ की जनवरी एक बार फिर से मुझे इशारा कर रही हैं, वक्त आ गया हैं फिर से खुद को होउम करने का. लेकिन थोडा सा झिझक रहा हूँ, कही फिर पिछले दशक जैसा अंजाम न हो. नहीं इस बार तो मेरे माता-पिता का आशीर्वाद भी है, अनेको कुशल मार्गदर्शक और शुभचिंतक  भी हैं. वह सब  कुछ है, जिसकी कमी मैंने अपने पिछले दशक के कर्मयात्रा के दौरान महसूस की थी. पिछली बार मेरे साथ बस मेरा जज्बा था, जिसकी बदौलत ही छोटा ही सही एक मुकाम तो हासिल किया था. 


 मेरे  जज्बे  के साथ-साथ, अब तो मेरे साथ मेरा हुनर और उसे निखारने वाले कई हांथ हैं. सबसे बड़ी बात अब सिर्फ वो बचपना नहीं और सचिन बनने  का सपना नहीं हैं. अब है तो वास्तविकता का धरातल है , जिस पर आत्म  निरीछण, आत्म चिंतन एवं स्वअवलोकन की कसौटी है. इन पर खरा उतरना ही मेरा अंतिम ध्येय हैं. सचिन न  बन पाया तो कोई बात नहीं, मेरी असली पहचान अर्मेंद्र अमर हीं  सही..और  यही अकाट्य सत्य है....

 
 

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2 comments:

Unknown said...

Bahut khub janab, jis tarah se aapne apne anubhav ke liye shabd chune hain, main to kayal ho gaya. Bahut bahut dhanyabad...

-Balbir

अंतर्मन said...

@ balbir bro.. dhanybaad.. bas tikk taak likhne ki kosish karta hun

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