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विजेट आपके ब्लॉग पर

मात्र एक प्रतीक

मैं मात्र एक प्रतीक हूँ 
वर्तमान में सजीव हूँ
भ्रमरता के भरम में
खो गया  धरम में
उलझ कई वहम में
अहम् का अतीव हूँ 
मैं मात्र एक प्रतीक हूँ

आत्म मुग्ध स्वप्रभाव से
अकिंचन सा अभाव से
हीन दीन दबाब से
पथिक एक पतित हूँ
मैं मात्र एक प्रतीक हूँ

भौतिकता के कई चरण
ढोंगियों ने किये वरण
लाज कर  हरण
बन आधुनिक भी अतीव हूँ
मैं मात्र एक प्रतीक हूँ 

अंधी दौड़ से न हांफता
खुद से हीं मै भागता
बस सोच यही कांपता
भविष्य का अतीत हूँ
मैं मात्र एक प्रतीक हूँ

बदल जीने के मायने 
चला जीवन को मापने
खुद को रख सामने
उदाहरण एक सटीक हूँ 
मैं मात्र एक प्रतीक हूँ..

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जीवन और सपने

मेरा
एक सपना था
टूट गया
सपने तो होते
हीं हैं टूटने के लिए
अगर ना टूटे तो
जिंदगी में अहसास कहाँ
धडकनों के तेज़ धड़कने
की वो आवाज़ कहाँ
चेहरे पर भय मिश्रित
ख़ुशी  के वो भाव कहाँ
हूँ जिंदा अभी
है वक्त यहाँ
कुछ कर गुजरूँगा
ऐसा वो
अंदाज़ कहाँ 
खुली आँखों से जो दिखे
वही तो दुनिया है
स्पन्दन है
हलचल है
वही चेतन
और जीवन है
बंद आँखों में तो
ख़ामोशी है
नीरवता है
मदहोशी
और निर्ज़नता है 
शायद सपने तो 
अचेतन है
और जीवन एक 
केतन है
आज फिर एक
सपना टूट गया
इस चुभन के साथ
कि मैं जिंदा हूँ
तैयार हूँ
फिर एक 
सपने के लिए 
हाँ और नये
सपनों के लिए....

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एक बंजारा

एक बंजारे  सी है जिन्दगी
सुन बंजारे का ये कहना
ख्वाब तो लाखों हैं,मगर
पूरा न कोई सपना


बिछड़े अपने हैं कई
चाह कर कह न सके
मंजिले हर पल नई
राह में रुक न सके
बस शामियाने की जरुरत
आशियाना वर्जित हमे
दिल की कोई कदर
सब भाव रंग अर्पित उन्हें
हो चूका निष्ठुर हृदय
नस नस भरी भरी वेदना
एक बंजारे सी है जिंदगी
सुन बंजारे का ये कहना


खुद में,खुद को सिमट कर
भीड़ से मिलते रहे
हर पल रोशन रहे शमा
ये सोच, जलते रहे
कह रहा बंजारा अभी
आँखों में लेकर नमी
बस छोड़ते चलो निशां
आसमा हो या फिर ज़मी
सांसो के अंतिम सफ़र तक
नहीं हार
है,थमना
एक बंजारे
सी है जिन्दगी
सुन बंजारे का ये कहना

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अभिव्यक्ति की अभिलाषा

निर्जन वन में
डूबे मन को
सूर्योदय की आशा है
कैसे खुद को व्यक्त करू
अभिव्यक्ति की अभिलाषा है
घनघोर अँधेरा छाया
चहुँओर प्रेत मंडराया
सहमा ठिठुरा 
बैठा वह 
ख़ामोशी से मुस्काया
ख़ामोशी के 
इन लब्जों की
क्या कोई परिभाषा है
कैसे खुद को 
व्यक्त करू
अभिव्यक्ति की अभिलाषा है
थी यह वक्त की
सारी माया
माहौल में है 
अब कलरव छाया
होगा कब
खुशियों से दीदार 
इंतज़ार का देखो
फल है आया
इंतज़ार इन लम्हों में
ना दिखती 
कोई निराशा है
कैसे खुद को व्यक्त करूँ
अभिव्यक्ति की अभिलाषा है

 
 
     
 

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देश की हुंकार

कर सिंहनाद गर्जना
तोड़ सारी वर्जना
करे देश अब हुंकार है
क्रांति की दरकार है
लोग कहते है वहां
सजा मौत का दरबार है

वे अपने होकर भी 
इतने पराये हो गए
लालच सत्ता के दलदल में
सारे रिश्ते खो गए
तेरी तीक्ष्ण बुद्धि वाक पटुता
छल प्रपंच बेकार है
देश का एक एक शख्स
कफ़न संग तयार है

बलिदानों की बलिवेदी
मांगती कुर्बानिया
रह अड़चन रोड़े सब
लाखो हैं परेशानिया
हो गयी शरुवात जब
तब रुकना बेकार है
वादों की चाशनी से तो
चले जाते हर बार है

कौन जाने कब थमेगा
जुल्म का ये सिलसिला
धीरे धीरे हीं सही
बढ़ रहा है काफिला
बज उठी रण दुधुम्भी 
बदलाव की ललकार है
सज उठे साज सब
जय हो की जयकार है
करे देश अब हुंकार है
क्रांति की दरकार है..

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सफ़र

इस सफ़र को अब एक
हमसफ़र चाहिए
जहाँ बस सके आशियाना
वो शहर चाहिए

कब तक जले यूँ
अकेला दिया
इसके लौ को भी
नुरे नज़र चाहिए
इस सफ़र को अब 
एक हमसफ़र चाहिए

कोई आया करीब
बन कर नसीब
पढ़ सकूँ ऐसा ख़त
वो खबर चाहिए
इस सफ़र को अब 
एक हमसफ़र चाहिए

नाउम्मीदों में कटता सारा समा
फरिश्तें भी खो गएँ जाने कहाँ
मौला ! अब इन दुयाओं में
तेरा असर चाहिए
इस सफ़र को अब 
एक हम सफ़र चाहिए

जिन्दगी के सफ़र को सजाते हुए
कई मिल के पत्थर बनाते हुए
जगमगा दू जहाँ
ये हुनर चाहिए
इस सफ़र को अब 
एक हमसफ़र चाहिए...

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जीवन एक परीक्षा

इन टेढ़े - मेढें राहों से क्या घबराना
जब जीवन एक परीक्षा है
यहाँ सांसे मिलती
गिन - गिन कर
दिन भी मिलते
चुन - चुन कर
वो लाख कहे
कठपुतली तुझको
इंसा बन कर जीना है
तुझे इस बात की फिकर नहीं
यह भीख है या फिर भिक्षा है
इन टेढ़े - मेढें  राहों से क्या घबराना
जब जीवन एक परीक्षा है


आंधी आये या तुंफा 
चाहे बदले सारा जमाना
क्षण भंगुर इस दुनिया में 
तू खुद को अमिट बनाना
जीवन की धुन है ऐसी
चंद लम्हों के सपनो जैसी
जी ले आँखों के सब सपने
इसे मन्त्र कहो या दीक्षा है
इन टेढ़े - मेढ़े राहों से क्या घबराना
जब जीवन एक परीक्षा है


प्यार का मंतर फूंक
हमे यहाँ से जाना है
अगर जीते जी ना सही 
फिर मर  कर अलख जगाना है
ना कर तू अभिमान कभी
हैं कई जिस्म पर
एक जान सभी
दिल से दिल को जोड़ यंहा
यही जीवन की शिक्षा है
इन टेढ़े - मेढ़े राहों से क्या घबराना
जब जीवन एक परीक्षा है
 

तुझे इतिहास के पन्ने दे जगह
शब्द कहें तू किन सा था 
जब उठे अर्थी तेरी
लोग कहें क्या इंसा था
साधारण रह कर भी
असाधरण कुछ कर जाना
यही तेरी अंतिम इक्छा है
इन टेढ़े- मेढ़े राहों से क्या घबराना
जब जीवन एक परीक्षा है...

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मां

मां
यह ब्रह्माण्ड तुझपे टिका
पूरा त्रिलोक तुझमे बसा
तू आदि और अनंत 
इस धरा का अंत है
हर जन्म मेरी मां रहे तू
यही मेरी कामना
कर तेरी आराधना
सधती सारी साधना...
तू सृष्टि है
मेरी शक्ति है
तू भाव भी
और भक्ति है
उड़ेल अपनी भावना
कर तेरी आराधना
सधती सारी साधना..
तू गुरु है
तू हीं ज्ञान है
सत्य का
संज्ञान है
छोड़ सबकी वंदना
कर तेरी आराधना
सधती सारी साधना
तू तीक्ष्ण है
तू तेज़ है
अब क्षीण पड़ता
शब्द का यह 
वेग है
नतमस्तक तेरे सामने
विश्व के विद्वान
मैं तो ठहरा दीन हीन
याचक एक नादान
है मेरा मानना
कर तेरी आराधना
सधती सारी साधना
सधती सारी साधना...

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है मन व्यथित
तन पीड़ित
रोम रोम तड़ित

झर झर झरती 
आसुंयों की लड़ी
न जाने कब बीतेगी
ये अंधकार की घडी

है धार कुंद
प्रहार मंद
जिन्दगी बनी
एक द्वन्द

अविरल बारिश
मुसलाधार 
नैया फसी बीच
मझधार

तूफान का झंझावत
बना है यथावत
तैयार कर तू गज
ये वीर छत्रिये महावत

कस तू हर  
कसौटी को
कर दमन हर 
चुनौती को

हो विजयी
जिन्दगी की 
रणभूमि में
न रुक कभी अपने
कर्मभूमि में
न रुक कभी 
अपने कर्मभूमि में.....
 

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विरह की बरसी

नहीं, अब नहीं होगा
मुझसे फिर प्यार
क्यूंकि, हुआ था 
मुझे यह एक बार
गुनगुनाया था संग
मैं उसके कभी
ख्वाबो में भरे थे
रंग जहाँ के सभी
नज़रे बचाकर
सबसे छुपाकर
रखा था उसको
दिल में सजाकर
बढ़ी थी धड़कन
जब हुई आंखे चार
नहीं,अब नहीं होगा 
मुझसे फिर प्यार


आई थी वो मेरे 
दिल के करीब
लेकिन बन न सका 
मैं उसका नसीब
मिल कर बिछड़ा
जैसे कोई अपना
चंद पलों में
बिखरा एक सपना
अब, यादों में आती 
है वो बारम्बार
नहीं, अब नहीं होगा
मुझसे फिर प्यार


थे हम दोनों
खुश बड़े
अलग सी लीक
पे बिलकुल खड़े
क्रूर विधाता 
को यह नहीं भाया
प्रेम में विरह 
की रीत निभाया
छीन लिया उसने
मेरा संसार
नहीं, अब नहीं होगा
मुझसे फिर प्यार


कैसे रूठती थी
तो मनाता था मैं
रोयीं आँखों को भी 
हँसता था मैं
बीत गए 
सुख के सब रैन
आधी रातो को 
भी जागती अब नैन
हिल सा गया हूँ
उसे मैं हार
नहीं, अब नहीं होगा 
मुझसे फिर प्यार
क्यूंकि, हुआ था मुझे 
यह एक बार.......   

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मचलता भारत

आज मैंने लहरें देखी
फिर उठते तूफान को देखा
इस मचलते भारत में
एक नए अरमान को देखा

उस बुजुर्ग की शंख ध्वनि पर
दौड़ा  आया सारा देश
जाति धर्म और भाषा बोली
एक हो गए सबके वेश
आह्लादित होते मेरे मन ने
अद्भुत इस संग्राम को देखा
इस मचलते भारत में
एक नए अरमान को देखा

वो इस बात से बेखबर
कि हम हो रहे हैं बेसबर
नवीनता की चाहत में
अंकुरित होते नव प्राण को देखा
इस मचलते भारत में
एक नए अरमान को देखा

करो फैसला अभी यहीं
अब नहीं तो कभी नहीं
साठ साल में पहली बार
झुकते झूठे शान को देखा
इस मचलते भारत में
एक नए अरमान को देखा...
एक नए अरमान को देखा...  

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क्यूंकि मैं इंसान हूँ

आज हूँ मैं इतना शर्मिंदा
क्यूंकि मैं इंसान हूँ
अपने गम से कम
कर ज्यादा आंखे नम
दुसरो की ख़ुशी से
परेशान हूँ
क्यूंकि मैं इंसान हूँ


हीन भावना
कुंठाग्रसित
अपनी अक्रमन्यता से त्रसित
कर बंदरो सी हरकते
शायद मैं नादान हूँ
क्यूंकि मैं इन्सान हूँ


छीन कर तोड़ कर
फोड़ कर मार कर
क्या जीत पाउँगा मैं
इस बात से अनजान हूँ
क्यूंकि मैं इंसान हूँ


तिड़कमे भिड़ा
छल कपट लगा
छोटा सा कुछ पा
रह जाता इस भरम में
अब तो मैं भगवान हूँ
क्यूंकि मैं इंसान हूँ


किसे कहूँ कितना कहूँ
किस बात को कैसे कहूँ
आज मैं हूँ कितना दुखी
क्यूंकि मैं इंसान हूँ.....

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बुद्धिजीवी और मौत की छाया

एक खुशनुमा शाम
मैं निकला 
जिन्दगी की अँधेरी 
गलियों के
सुनसान सफ़र में
मंजिल की तलाश में
निकलते ही पीछे से
एक बुद्धिजीवी ने 
टोका
मैंने पूछा
भाई मेरे राह को
क्यूँ रोका
जबाब मिला 
ए ! सिरफिरे
जमाना ख़राब है
रात होने को है
कहाँ जाता है
पढ़ा नहीं
उधर जाना मना है
क्यूँ अपनी
मौत बुलबाता है
मैंने कहा
ये मेरे ख्वाबो की 
राह है
मुझे बस मेरी मंजिल की
चाह है
आपको धन्यबाद
बतलाता हूँ
अब मैं
आगे जाता हूँ
रात हुई
छुटा शहर
चल रहा
अभी सफ़र
तन्हाइयों में
थोड़ी झिझक में
कुछ मौत के
खौफ में
अचानक
एक कुत्ते के
भौंकने की 
आवाज़ आई
राहत मिली मुझे
सोचा
अब अकेला नहीं 
हूँ मौत भाई
मैं और मेरे 
साथ
वो कुत्ता
उसने भी मेरे संग
कुछ देर बितायी
फिर कहा
भाई
अब मैं जाता हूँ
क्यूंकि शहर के
बुद्धिजीवी भछको
का तो मैं ही 
एक रछक हूँ
अगर मैं न गया
तो 
मेरी वफ़ादारी पर
उंगुली उठाई जाएगी
फिर जाँच कमीशन
बैठा
मुझे सजा 
सुनाई जाएगी
मैंने कहा धन्यवाद
आपको
साथ निभाने का
करो दुयाएँ 
मेरे लिए
मेरी मंजिल पाने का
था हैरान कुत्ते
की समझदारी पर
साथ में हो आया गर्व
उसकी वफ़ादारी पर
आधी रात ढल गयी
चौराहे पर आते आते
मैं
बेचैन परेशान
मंजिल का न कोई
नामो निशान
शायद सही रास्ते
आगे बढ़ा
 हुआ
ठिठक कर खड़ा
रोंगटे हो गए खड़े
मेरे पग आगे न बढ़े
ये कैसी
साया है
क्या उस बुद्धिजीवी 
द्वारा बताई
यही मौत की
छाया है
मैंने डरते-डरते
अपनी गर्दन घुमाई
आंख खोलते हीं
मुझे खुद पर
हँसी आयी
ओह ! यह तो मेरी हीं
साया  है
हर राह साथ चलने वाली
मेरी हीं छाया है
मेरी तन्हाई है
मेरी परछाई है
यह आँखों का भरम है
बस मौत का वहम है
अब सामने मुझे
मेरी मंजिल 
आई नज़र
बढ़ चला 
मैं उस डगर
क्या ?
बुद्धिजीवी
अपनी ही छाया से
डरते हैं ?
शायद !
इसलिए तो 
मंजिल की राहों में
प्रवेश निषेध
का चिन्ह लगाये रहते हैं
प्रवेश निषेध का चिन्ह लगाये रहते हैं .........

बुद्धिजीवी और मौत की छाया 

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न जाने हम क्या ढूंढते हैं...(मेरी लिखी पहली कविता)..

खामोश
समंदर की गहराइयों में
अँधेरी 
रातो की परछाइयों में
न जाने 
हम क्या ढूंढते हैं
बिखरे
हैं ख्वाब मेरे
अधूरी
है जिन्दगी मेरी
इन बिखरे तिनकों में

न जाने
हम क्या ढूंढते हैं
आँखों में
है मंजिल मेरी
दिल में 
कुछ अरमा मेरे
जिन्दगी की
इन 
पथरीली राहों में
न जाने
हम क्या ढूंढते हैं
एक छोटा 
सा सपना मेरा
न इस जहाँ
में कोई 
अपना मेरा
शायद
अँधेरी इन
गलियों में
रोशन एक
दिया ढूंढते हैं
न जाने
हम क्या ढूंढते हैं.............
 
 






 
 

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तन्हाई का आलम

तन्हाई के इस आलम में
तन्हा तन्हा सा हूँ मैं
ख़ामोशी के इस मंज़र में
सहमा सहमा सा हूँ मैं
बेखबर सा बेसबर सा
फिरता मारा मारा
अब कोई न आने वाला
शायद मैं बेचारा
तन्हाई के आलम में....
वीराने से रास्ते
वीरानी सी छाई
पल भर पहले साथ थे
अब ख़ामोशी हैं पसरायी
तन्हाई के इस आलम में...
किस बात से रूठ गयें वो
किस बात पे टूट गयें
शायद गलती मेरी हो
जो हम राहों में छुट गयें
तन्हाई के इस आलम में...
ये क्या हुआ
और क्यों हुआ
क्या गलत था क्या सही
मुझको तो कुछ पता नहीं
 पर जिस बात की सजा मिली
वैसी भी कोई खता नहीं
तन्हाई के इस आलम में
ना रह तन्हा तन्हा तूं
ख़ामोशी के इस मंज़र में
ना रह सहमा सहमा तूं
मंजिले आनी अभी
रास्तें हैं बाकी
किस बात का गम तुझे
ना रह ठहरा ठहरा तूं 
तन्हाई के इस मंज़र में
ना रह सहमा सहमा तूं.......... 

     

    

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मत नाम रखो भोजपाल

अगर अपनी सांस्कृतिक स्मृति सहेज कर रखना गलत है..मत नाम रखो भोजपाल...अगर अपने पुरखो को इज्ज़त देना गलत है..तो मत नाम रखो भोजपाल..अगर ऐतिहासिक विरासत को पहचान देना गलत है..तो मत नाम रखो भोजपाल..अगर भोजपाल देहाती,अटपटा और पिछड़ा शब्द लगता है तो..मत नाम रखो भोजपाल..लेकिन कृप्या करके..राजा भोज जैसे महान हस्ती की आड़ में राजनीति तो मत करो..कृपया करके उन्हें किसी विशेष दल की सांस्कृतिक धरोहर  बता राजा भोज का अपमान तो मत करो..पिछले तीन महीने में मध्यप्रदेश में ८९ किसानो(सरकारी आकडे) ने आत्म हत्या की है..यह संख्या कम नहीं है..मगर चंद  औपचरिकता के बाद  किसी ने कुछ बोलने की जहमत नहीं उठाई..मगर भोपाल का नाम भोजपाल रखने की बात क्या चल पड़ी मानो भोपाल पर पहाड़ टूट पड़ा..सेव भोपाल जैसे अभियान चलाये जाने लगे..रैलियां करने की बात शुरु हो गयी..राज्य की कई अन्य समस्यों पर ध्यान गया..ताकि किसी बहाने सरकार को रोका जा सके..गरीब किसानो की याद आ गयी..जिन बेचारो का क्या..उनके लिए न तो भोपाल का कोई मतलब  हैं न भोजपाल का..ये पेट भरे बुद्धिजीवी वर्ग का एक नया तमाशा है..जिनको अपना मनोरंजन करना है..इसमें रोमांच,साहसिकता और ग्लेमर भी है...तरकश में विचार्रो के तीर भरे जायेंगे..वाद विवाद का नया मंच होगा..ज्ञान का आडम्बरपूर्ण  प्रदर्शन ..फिर भोपाल हो या भोजपाल...कोई फर्क नहीं पड़ेगा..इनके लिए तमाशा खतम..पैसा हज़म वाली बात होगी.. काश इतनी जागरूकता हमने महंगाई,.बेरोज़गारी..कालेधन..किसान आत्म हत्या..घोटाले और भ्रष्टाचार  के लिए दिखाई  होती.तो शायद इस देश की तकदीर ही बदल गयी होती...जरा सोचिये......

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आम आदमी

आम आदमी

कम रोशनी
उजियारे में
घुप्प घना अंधियारे में
किसी कोने किनारे में
कट रही मेरी जिंदगानी
हाँ मैं हूँ आम आदमी
और यह हैं मेरी कहानी
कभी प्राण था
मैं शान था
और इस धरा का मान था
अब मैं बेकार हूँ
मजबूर हूँ
और शायद लाचार हूँ
लालच की लुट में
कर रहा वह नादानी
हाँ मैं हूँ आम आदमी
और यह हैं मेरी कहानी
बिलख बिलख
कर रोता मैं
तड़प तड़प
कर हँसता
जिसको मैंने अपना माना
खो गया वह दीवाना
वाष्प बन बिखर गए
ख्वाब ख्वाहिशे और रूमानी
हाँ मैं हूँ आम आदमी
और यह हैं मेरी कहानी
रह गया हूँ
मृतप्राय
विलुप्त होती
चेतना
वर्तमान के इस दौर में
विरह व्यथा की वेदना
उलझ उदार की आग में
मिट रही मेरी निशानी
हाँ मैं हूँ आम आदमी
और यह है मेरी कहानी..........   
 
 


 

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मौत..मैं और मेरा घरौंदा..

बड़े अरमा से हमने
बनाया घरौंदा
सपनो से सुन्दर
सजेगा ये सोचा
कब गिर पड़े हम
पता भी न चला
जब आया वो हल्का
हवा का एक झोंका
वहां थी थोड़ी रौशनी
और घना था अँधेरा
ताबूत में था
जब होश आया
फिर सबने मुझे 
कफ़न से सजाया
बड़ा हीं दिलचस्प
ये सारा वाक्या
पर था मेरे सामने मेरा घरौंदा
सपनो से सुंदर सजेगा ये सोचा
बंद थी आँखे 
और हाँथ खुले
थमी थी धड़कन 
और हम थे धुले
रोते हुए सबने 
कंधे पर उठाया
यह क्या हो रहा है
समझ हीं न आया
कोई रोको इन्हें
कोई रोको उन्हें
करो न दूर मुझसे
मेरा घरौंदा
सपनो से सुंदर 
सजाऊंगा था ये सोचा 
था वो घरौंदा
पर न थे हम
क्या ये जिंदगी 
एक सपना
या फिर धोखा
जहाँ से आये 
वहां को चले हम
करके तुम्हारे 
हवाले अपना घरौंदा
हाँ अपना घरौंदा..हाँ अपना घरौंदा ...

   
 
            

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बुधिजीवी का वहम

एक दिन
जाग उठा मेरा अहम्
छा गया मानस पटल में 
बुधि जीवी होने का वहम 
सोचा आज करूँगा शास्त्रार्थ 
कब काम आयेंगे मेरे यह काव्यार्थ 
सीना तान प्रचंड में
घर से निकला मैं घमंड में 
निकलते ही  निरीह सा एक
फटे हाल प्राणी दिखा 
सोचा आज क्यों न 
कुछ इसे हीं सीखा
मैंने उसे आवाज लगायी 
प्रतुय्तर में कुछ आवाज़ न आई 
लम्बे लम्बे डग 
मैं पहुंचा उसके पग 
देखा वह व्यस्त था
पसीने से पस्त था
मैंने पूछा हे हीन बुधि 
तू क्या करता है
एक विनम्रता भरा जबाब आया 
मान्यवर मेहनत से ही तो 
अपना पेट भरता है
मेरे अट्टहास से अट्टालिका गूंज गयी
कहा ये कैसी मेहनत है भई
सुनो मेहनत तो, मैं करता हूँ 
हर दिन नए विद्वान को पड़ता हूँ
बाइबिल कुराण का ज्ञाता हूँ
वेद पुराण की खाता हूँ  
 सरल शब्दों में उसने कहा 
वेद कुराण न मेरे किसी काम की 
बीबी बच्चो की दो रोटी
मुझे पुण्य देती है चारो धाम की
उसने मुझे झुठला दिया 
मेरे दंभ को हिला दिया 
फिर भी ज्ञान के नशे में चूर
बोला मेरा सुरूर 
मुर्ख क्या तुझे नहीं पता ?
मैं समाज का नीति निर्धारक हूँ 
तेरे जैसे कई लोगो की 
चंद रोटियों का व्यवस्थापक हूँ 
इस बार उसने हौले से नज़र उठाई 
फिर मेरे नजरो से नजर मिलायी
और सुस्पष्ट शब्दों में कहा 
बाबु माना आप ज्ञाता हो
चंद रोटियों के दाता हो
मगर करता हूँ एक सवाल 
फिर न करना कोई बबाल
मेरा भाई किसान था 
खुद पर उसको शान था 
परसों कर ली उसने खुदकुशी
क्यों की बच्चों को न दे पता था वह खुशी
इधर उसकी अर्थी  उठी
उधर उसकी बीबी चल बसी
छोटा सा था उसका संसार 
बिखर गया पूरा परिवार
मालिक,क्या आप मौत के निर्धारक हो
या फिर यमराज के व्यवस्थापक हो
बचा नहीं पाते हो चंद जानन को
आ जाते हो पोथी लेकर वाचन को
उसने आगे कहा 
हे मंडूक तुम कूप में रहते हो
और खुद को ज्ञानी कहते हो
जायो लौट जायो अपने महल में 
कुछ दम नहीं तुम्हारे इस पहल में
शर्म से गडा मैं नज़रे चुरा रहा था
आज एक अज्ञानी मुझे ज्ञानी बना रहा था 
तुच्छ है वह सारा ज्ञान 
इस यथार्थ के सामने
चल पड़ा उसी छण
मैं  धरा को थामने
आज कोई दिखा रहा है
मुझको आइना 
हे प्रभु, मुझ में
बुधि जीवी होने का भ्रम 
कभी आये न      
     

  
  
 
  

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एक क्रिकेटर की असफल दास्तान.......

 एक क्रिकेटर की असफल दास्तान .. उसकी ख्वाहिशें..उसका बचपन.. 

जिन्दगी वैसे नहीं चलती जैसा हम या आप सोचते हैं. बहूत विरले ही होते है जिनके इशारो पर जिन्दगी नाचती है. और मै भी कोई अपवाद नहीं हूँ. जनवरी का महिना था, मगर वर्ष २०१०. लोग खुशियों से सरोबर होकर एक दुसरे को बधाई देने में व्यस्त थे. लेकिन मैं तन्हा सा जिन्दगी के वैसे मोड़ पर खड़ा था, जंहा मुझे अपनी  पिछली राहों को अलविदा कहना था दिल रो रहा था, कठिन समय था...

नए वर्ष की अजीब सी शुरुआत  थी वो, कश्मकश, बेबसी, और बेचैनी भरा माहौल. साथ में जेहन में तैरता एक सवाल,क्या एक दशक के मेहनत का यही अंजाम था ? हाँ  एक दशक, पुरे एक दशक. ठीक २५ दिसम्बर २००० को मैंने पहली बार बल्ला पकड़ा था. वो जोश, वो ख़ुशी और कुछ कर गुजरने का जूनून. युवा होते हर किशोर की तरह मेरी आंखों में भी एक सपना था...एक और सचिन...

भाग्य के घोड़े एवं नियति के लगाम के आगे आज तक किसकी चली है, जो मेरी चलती. जी तोड़ मेहनत, अथक परिश्रम के बाबजूद क्रिकेट में मुझे उतनी सफलता प्राप्त नहीं हो सका जितने का मैं  हकदार था. इस पुरे परिदृश्य पर पैनी नज़र डालने के बाद मुझे कई कारण नज़र आये.  इनमे  सबसे बड़ा कारण मेरे माता-पता की तटस्थता  थी शायद. यह बात उतनी ही सत्य है जितना भाग्य का लेखा, इंसान माता पिता के आशीर्वाद के बगैर  कुछ भी नहीं कर सकता हैं. उन्हें अच्छे से पता था की मै कहीं और ज्यादा  बेहतर कर सकता हूँ.

कितनी जल्दी बीत गए १० साल. इतनी जल्दी,अरे नहीं ऐसा कैसे हो सकता है. मानो अभी  कल ही की तो बात हो,अब तक कानो में यही शब्द गूंजता है "अमर कल १० बजे से मैच है,९ बजे कॉलेज ग्राउंड  पहुच जाना". फिर करवटों में बीतती रातें, हडवडा  कर सुबह ५ बजे ही जाग जाना.बार -बार किटबैग  को ठीक करना, और अंत में सारा ध्यान मैच पर केन्द्रित कर देना. सुबह मैच  की उतेज़ना, रन बना कर बल्ले को हवा में लहरा देना,फिलडिंग  करते समय आँखों में चश्मा, होठों पर चुइंगम और बार बार कॉलर खड़ा करते रहना. अंत में जीत अनकही ख़ुशी,या हार का खामोश गम. शाम में पार्टी, अगली सुबह बेसब्री के साथ स्थानीय अखबार में फोटो सहित खबर का इंतज़ार. किस धुंध में गुम हो गए सब. बस यादें ,यथार्थ कुछ भी नहीं..


जो भी हो, जिस तरह २०१० की जनवरी मेरे लिए वर्तमान को बदलने का अंदेशा लेकर आई थी. उसी तरह २०११ की यह जनवरी मुझे मेरे नए भविष्य का संदेशा दे रही है. लगभग  वही माहौल. लोग एक दुसरे को बधाई देने में व्यस्त, और मैं खुद में फिर से अकेला. इसबार जेहन में कौंधता दूसरा सवाल "क्या यही मेरे नए भविष्य की शुरुआत है "? शायद हाँ क्रिकेट ने मुझे बहूत कुछ तो नहीं दिया, लेकिन एक सकारात्मक सोच जरुर दे दिया. हर हाल में जितने की ललक, और हर हार से जीतने का सबक.  जिन्दगी में कुछ भी व्यर्थ घटित नहीं होता है. २०१० की जनवरी में खुद से  पूछे गए सवाल का जबाब मुझे मिल चूका था, " एक दशक की मेहनत का परिणाम मुझे  क्या मिला" ..


खैर, भूत  तो बीता हुआ कल है , और यादें बस एक सुखद अहसास. इन दोनों पर किसी का कोई जोर नहीं. समय का रथ इन्हें हमसे इतनी  दूर कर देता है की हम इन्हें चाह कर भी नहीं जी सकते हैं. अगर मेरा वश चले तो इन यादों को पिरो कर, उन लम्हों को संजो कर कुछ ऐसा लिख जाऊं जो वाकई अद्भुत हो. जिसमे सिर्फ क्रिकेट न हो,जिन्दगी के हर एक  पहलु  का समावेश हो. मेरे प्रति मेरे दोस्तों सहयोग, सम्बन्धियों का रवैया और जिन्दगी के प्रति मेरा नजरिया, सब कुछ शामिल हो. मेरी जिन्दगी के पिछले दशक के अंतिम में आये उस शख्स का ज़िक्र भी, जो आकर तो चला गया, लेकिन जिन्दगी के प्रति मेरी सोच को बदल गया. उसका यह यह कहना " अमर माना तुम अच्छे क्रिकेटर हो, लेकिन तुम  इससे कही ज्यादा बेहतर के राइटर बन सकते हो"...

आज मैं फिर आश्चर्यचकित  हूँ,अपनी इस बात को लेकर की जिन्दगी में व्यर्थ कुछ भी नहीं घटता  है.पता नहीं जिन्दगी कैसे  बदल गयी और वक्त  ने मुझे उस मुहाने पर ला खड़ा कर दिया, जहाँ से मैं उस शख्स की बातों का बेहतर समझ सकता हूँ.  वो नाम आज मेरी जिन्दगी में कहीं नहीं है. अब मेरा उससे दूर- दूर तक कोई रिश्ता नहीं  है. बस है तो लबो पर, उसके ताउम्र खुश रहने की दुयाएँ, और साथ में जीवन जीने का नया दृष्टीकोंण.

इन सभी घटनाक्रमों पर मैं एक बेहतरीन उपन्यास लिख दूँ, और लोगो से कहूँ की यह आपके रोम रोम को झंकृत कर देगा. जिसमे हर युवा अपनी जिन्दगी की कहानी द्धुन्द्धेगा. लेकिन मानेगा कौन, सब कहेंगे भावनायो  के ज्वार में बहक गया हूँ.  अगर यही बात चेतन भगत, जे.के.राउलिंग कहें तो लोग हाथों-हाँथ लेंगे. शायद इसे ही कहते हैं ब्रांड वैल्यू. इसके लिए भी कहीं न कहीं से शुरुआत की जरुरत और, किसी न किसी पर विश्वास की आवश्यकता होती है. आखिर ये ब्रांड वैल्यू  निर्मित कैसे होता है. सोचते- सोचते मुझे इसका जबाब मिल ही गया.एक - दो साल में कोई ब्रांड नहीं बन जाता है. इसके पीछे तो अनेक वर्षो का अथक परिश्रम और एक कुशल सतत मार्गदर्शक होता है. वैसे शुरुआत में हर कोहिनूर कोयल के खान में ही रहता है, एवं कुंदन को आग में तपना ही पड़ता है.


२०११ की जनवरी एक बार फिर से मुझे इशारा कर रही हैं, वक्त आ गया हैं फिर से खुद को होउम करने का. लेकिन थोडा सा झिझक रहा हूँ, कही फिर पिछले दशक जैसा अंजाम न हो. नहीं इस बार तो मेरे माता-पिता का आशीर्वाद भी है, अनेको कुशल मार्गदर्शक और शुभचिंतक  भी हैं. वह सब  कुछ है, जिसकी कमी मैंने अपने पिछले दशक के कर्मयात्रा के दौरान महसूस की थी. पिछली बार मेरे साथ बस मेरा जज्बा था, जिसकी बदौलत ही छोटा ही सही एक मुकाम तो हासिल किया था. 


 मेरे  जज्बे  के साथ-साथ, अब तो मेरे साथ मेरा हुनर और उसे निखारने वाले कई हांथ हैं. सबसे बड़ी बात अब सिर्फ वो बचपना नहीं और सचिन बनने  का सपना नहीं हैं. अब है तो वास्तविकता का धरातल है , जिस पर आत्म  निरीछण, आत्म चिंतन एवं स्वअवलोकन की कसौटी है. इन पर खरा उतरना ही मेरा अंतिम ध्येय हैं. सचिन न  बन पाया तो कोई बात नहीं, मेरी असली पहचान अर्मेंद्र अमर हीं  सही..और  यही अकाट्य सत्य है....

 
 

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देवबंद के बहाने.....भारतीय इस्लाम....

देवबंद के बहाने.....भारतीय इस्लाम....

र्म या संप्रदाय की बात करे तो "इस्लाम" महान धर्मो में एक  है. धर्मग्रंथो की बात करे तो "क़ुरानशरीफ "  से ज्यादा  पाक  और पवित्र धर्मग्रन्थ शायद ही कोई मिले. अगर संतो की बात करे तो "मोहमद साहब " से बेहतर संत विरले ही मिलेंगे. लेकिन अफ़सोस मोहमद साहब  से बाद की पीढियों ने इस्लाम की महानता,पवित्रता एवं सम्पूर्णता को एक अलग हीं  मायने दे दिए. उन्होंने इस्लाम की महानता का अर्थ प्रचार और प्रसार माना, तो पवित्रता को रुढियो में जकड सम्पूर्णता के अर्थ को समझने में गलती कर दी..

जिसके फलस्वरूप इस्लाम तो वही रहा, लेकिन इसको मानने वाले पिछड़ते चले गए. रूढ़िवादिता अज्ञानता और प्रचार प्रसार को जो दौर चला इसका गवाह इतिहास है. विश्व के कई देश इस्लामिक हो गए. इस्लामिक होना गलत नहीं पर इस्लाम के नाम पर दकियानूसी और हिंसा परोसना गलत है. प्राचीन भारतीय उपमहाद्वीप में भी इसका फैलाव बड़ी तेज़ी से हुआ. भारतीय संस्कृति का लचीलापन, इसकी विस्तृत सोच ने इस्लामियत को  तो अपना लिया लेकिन कट्टरवादी नहीं बने. भारतीय समाज में एक नए शब्द का प्रचलन शुरु हुआ जिसे "भारतीय इस्लाम" कहा जाता है. जो यहाँ आक्रमणकारी  बन कर आये थे,वह सब यहीं के होकर रह गए. सम्राट अशोक के साथ अकबर भी को हम भारतीय अपने महान चक्रवर्ती सम्राटो में शुमार करते है.

यहाँ तक तो सब ठीक  था, दुरिया तब बढने लगी जब ब्रिटिसर्स ने अपने पांव  फ़ैलाने शुरु किये. फुट डालो शासन  करो की नीति के तहत अपने साम्राज्य का विस्तार शुरु कर दिया. बात उस दौर की है जब १८५७ में हुई प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेजो ने विफल कर दिया था. जिसके पश्चात भारतीय इस्लामी विद्वानों के एक समूह ने देवबंद विश्व विद्यालय की स्थापना की. इसका उदेश्य उपमहाद्वीप में पश्चिमी देशों के फैलाव एवं भौतिकतावादी सभ्यता को रोकना था. तत्कालीन विद्वानों  को डर था की कहीं यह विस्तार उनके धर्म को को न निगल जाये. साथ ही साथ मुसलमानों को उन परिस्थितियों खतरों से बचाना था जो उनके धर्म के लिए हानिकारक हो.

भारत में एक केंद्र के स्वरुप  में  देवबंद नामी नगर में इस्लामी अरबी मदरसा  की स्थापना हुई.यह विश्वविधायालय दारुल- उलम से सम्बंधित है. शुरूआती  दौर के  इसके प्रमुख व्यक्तित्वों में मोहमद कासिम, रशिम अहमद गंगोही आदि शामिल हैं. गहरी जड़ो वाला  इस  बौध्विक  मदरसे  ने अपने हर स्नातक पर गहरी छाप छोड़ी है. यह एक सामान्य विश्वविध्यालयो से अलग, जिसकी अपनी एक विशिष्ट पहचान है.इसके अपने कुछ नियम,कायदे-कानून.मत सिधांत आदि है

फिलहाल देश का यह पवित्र विश्वविद्यालय विवादों के दौर से गुजर रहा है .वह भी सिर्फ इसलिए की इसके वाइस  चांसलर मौलाना गुलाम मोहमद वस्तानावी ने गुजरात मुसलमानों में हो रहे विकास  के लिए  नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर दी थी. वस्तानावी  वैसे  शख्स है, जिन्होंने इस्लाम समाज की कडवी सचाई,इसके जरूरतों और उन्नति आवश्यकता  को समझा है. इस असाधारण शख्स  ने १९७९ में महाराष्ट -गुजरात सीमा पर जनजातिय छेत्र  में महज़ ६ बच्चों के साथ एक झोपड़ी में  शुरू  हुए मदरसे को "२ लाख " के छात्रों वाले संस्थान में बदल दिया

शायद  अभी इस्लाम समय के उस चौराहे  पर खड़ा है, जहाँ  उसे यह चुनना है वह धार्मिक कर्मकांडी समाज की संपत्ति बने या  शैक्छिक उदारवादी विचारधारा में अपना भविष्य ढूंढे. रूढ़िवादिता ,हठधर्मिता, एवं कर्मकांडी लोगो के वर्चस्व ने हीं अब तक इस्लाम को उसके वास्तविक इस्लाम से दूर रखा है. मोहमद साहब के उपदेशो, कुरान शरीफ के पाक आयातों को अपने स्वार्थ के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश करने वालो की जमात नहीं चाहती की एक आम मुसलमान प्रगति करे.

अज्ञानता,निर्धनता एवं विचारो की दुर्बलता का एक भयावह उदहारण "अमेरिका और इन जमातों  का मिल कर अफगानिस्तान को  तालिबान बनाना है.स्वार्थ सिधि  के लिए किया गया यह कुकृत्य आज खुद खुद अमेरिका  सहित पुरे विश्व के लिए खतरे का सबब है. इस्लाम समाज अभी भी  कहीं न कहीं मध्यकालीन सोच में जी रहा है.उस समय  समाज में पोप, पंडितो, और मौलवियों की तूती बोलती थी. जहाँ पोप के साम्राज्य को पूंजीवादी व्यबस्था ने ध्वस्त किया, तो वही पंडितो  के तिलिस्म  को पश्चिमीकरण के नक़ल ने तोडा. आज भी इनका अस्तित्व है,परन्तु इन्हें उतना ही महत्व दिया जाता  है जितने के यह वास्तविक हक़दार है.

अफ़सोस मुस्लिम समाज अभी  भी धार्मिक कर्मकांडी समूह की मिलकियत से  बाहर नहीं निकल पाया है.लेकिन कोशिश जारी है, सुगबुगाहटों और छटपटाहटों  का दौर शरू हो चूका है. अपने झूठे  अस्तित्व को बचने की लालच में  ये कर्मकांडी  समूह इस्लाम के महान शब्दों, नामों  का दुरूपयोग करते है.अब देखना यह है की एक साधारण मुसलमान की सम्पूर्णता और पवित्रता की चाहत, रुढ़िवादियों, हठवादियों  की स्वार्थ परक लालसा पर कब भरी पड़ती है. जिस दिन ऐसा होगा, उसी दिन से वास्तविक  इस्लाम का पुनः अभुय्दय होगा....

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इस स्वर्ग से तेरा नरक भला......

लाल चौक की कहानी तथ्यों की जुबानी


लाल चौक पर पहले कई बार पाकिस्तान का झंडा, हरा इस्लामिक झंडा और एक बार सफेद झंडा फहराया जा चुका है। पिछले कुछ सालों में यहां कई बार 14 अगस्त को इस्लामिक और पाकिस्तानी झंडा भी फहराया गया है। 1990 में 14 अगस्त को यहां पाकिस्तानी झंडा फहराया गया। २६ जनवरी, १९९२ में भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं के साथ मुरली मनोहर जोशी ने लाल चौक पर झंडा फहराया था। 27 जून 2008 को अमरनाथ भूमि विवाद के समय यहां हरे झंडे फहराए गए थे। गौरतलब है कि श्रीनगर में होने वाले  कई बम धमाके और मुठभेड़ों का लाल चौक गवाह रहा है।
पिछले दो सालों में लाल चौक से महज 200 मीटर दूर सीआरपीएफ के बंकर के पास भी तिरंगा नहीं फहराया जा सका है। 1993 में लाल चौक पर बीएसएफ का बंकर बनाया गया था, हालांकि 2003 में इस बंकर को हटा दिया गया। 2003 से 2007 तक यहां सीआरपीएफ का बंकर रहा। 2007 के बाद से यहां पर कोई बंकर नहीं रहा। 2008 में अमरनाथ भूमि विवाद के बाद यहां सुरक्षा बढ़ा दी गई। पिछले साल गर्मियों में उपद्रव के बाद पिछले 6 महीने से लाल चौक पर तारबंदी की गई है। लाल चौक पर सफेद झंडा भी फहराया गया है। 7 नवंबर 2010 को जम्मू-कश्मीर एनजीओ फोरम के सदस्यों ने लाल चौक पर सफेद झंडा फहराया था। हालांकि एनजीओ के सदस्यों पर कुछ उपद्रवी युवाओं ने हमला कर दिया था। घाटी के इतिहास में यह पहला दिन था जब लाल चौक पर सफेद झंडा फहराया गया था।


अंधेर नगरी चौपट रजा..टके सेर खाजा टके सेर भाजा....


जब लाल चौक पर इस्लामिक झंडा ,पाकिस्तानी  ध्वज न जाने कितनी पर फहरा दिए जाने के बाद भी, कोई हो हल्ला नहीं, कोई प्रश्न नहीं कोई विवाद नहीं कोई उबाल नहीं तो फिर तिरंगे पर बबाल क्यों..सिर्फ  इसलिए  ताकि इसी बहाने सरकार रुष्टो को तुष्ट कर सके और,बीजेपी अपना राष्टवादी कार्ड खेल सके और अलगाववादी अपना  विलाप आलाप सके...कुछ तो शर्म करो..कब तक बाटोगे देश को और कितना बाटोगे,किन किन वजहों से बाटोगे..कभी तो कुछ ऐसा कर जायो   की आगे आने वाली पीढ़ी कहे,इस देश का इतिहास  कहे ..नहीं अमुक दौर में अमुक नेतायो  की फौज ऐसी थी ..जिसने जिसने स्वार्थ छोड़ कर परमार्थ पर ध्यान दिया ...सायद ये सपना ही रह रह जाये खैर....

फिर आपत्ति कहाँ ...राष्ट ध्वज से जुड़े नियम...



26 जनवरी 2002 विधान पर आधारित कुछ नियम और विनियमन हैं कि ध्‍वज को किस प्रकार फहराया जाए:
क्‍या करें:


* राष्‍ट्रीय ध्‍वज को शैक्षिक संस्‍थानों (विद्यालयों, महाविद्यालयों, खेल परिसरों, स्‍काउट शिविरों आदि) में ध्‍वज को सम्‍मान देने की प्रेरणा देने के लिए फहराया जा सकता है। विद्यालयों में ध्‍वज आरोहण में निष्‍ठा की एक शपथ शामिल की गई है।

* किसी सार्वजनिक, निजी संगठन या एक शैक्षिक संस्‍थान के सदस्‍य द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज का अरोहण/प्रदर्शन सभी दिनों और अवसरों, आयोजनों पर अन्‍यथा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के मान सम्‍मान और प्रतिष्‍ठा के अनुरूप अवसरों पर किया जा सकता है।

* नई संहिता की धारा 2 में सभी निजी नागरिकों अपने परिसरों में ध्‍वज फहराने का अधिकार देना स्‍वीकार किया गया है।

क्‍या न करें:


* इस ध्‍वज को सांप्रदायिक लाभ, पर्दें या वस्‍त्रों के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है। जहां तक संभव हो इसे मौसम से प्रभावित हुए बिना सूर्योदय से सूर्यास्‍त तक फहराया जाना चाहिए।

* इस ध्‍वज को आशय पूर्वक भूमि, फर्श या पानी से स्‍पर्श नहीं कराया जाना चाहिए। इसे वाहनों के हुड, ऊपर और बगल या पीछे, रेलों, नावों या वायुयान पर लपेटा नहीं जा सकता।

* किसी अन्‍य ध्‍वज या ध्‍वज पट्ट को हमारे ध्‍वज से ऊंचे स्‍थान पर लगाया नहीं जा सकता है। तिरंगे ध्‍वज को वंदनवार, ध्‍वज पट्ट या गुलाब के समान संरचना बनाकर उपयोग नहीं किया जा सकता।


नेहरु उबाच......



1947 में जवाहरलाल नेहरू ने यहां ऐतिहासिक  रैली को संबोधित किया था। रैली नेहरू ने कहा था, 'आप मेरे हो गए हो मैं आपका। अब हम एक हो गए हैं।


कश्मीर नीति या अनीति..


शायद नेहरु जी को भी ये नहीं पता था की उनका ये कश्मीर लगाव या प्रेम आगे आने वाले  भविष्य में भारत के सामने सिरदर्द बनने वाला है...जैसे ध्रितराष्ट के पुत्र मोह के कारण महाभारत हुआ ..उसी  तरह नेहरु जी की गलत कश्मीर  नीतियों  के कारण कई बार  भारत पाक युद्ध हो चूका है ..उससके बाद आने वाली सरकार भी  नहीं संभाली..और महान सेकुलर भारत के महान उदहारण को जैसे तैसे अपनी  लुंज पुंज  नीतियों से अपने  साथ रखने की कोशिश करती रही..और आज वही भस्मासुर आपने पालक पोषक को ही भस्म करने को तैयार  खड़ा है ....

क्या वाकई हम एक दूजे के हो गए.....



अगर जम्मू और कश्मीर महाराज हरी सिंह के हस्ताक्छर   के बाद भारत का था तो फिर कबीलाई युद्ध के बाद  नेहरु संयुक्त राष्ट संघ क्यों  क्यों गए ..?
कहने को तो जम्मू और कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है..लेकिन इस अंग को सामान्य से अधिक विशेष लाड दुलार  (धारा ३७०)...?
अगर भारत  ek सेकुलर राष्ट है.तो फिर वहां से कश्मीरी पंडितो का विस्थापन...उनके पुनर विस्थापन  की व्यबस्था नहीं ..?
अगर जम्मू भारत का ताज है है तो अलगाववादियों को इतनी अहमियत...

शायद



जम्मू कश्मीर एक विकट और जटिल समस्या  है जिसका  निदान एक दिन में संभव नहीं  है ..यही कहते कहते  शायद पीढ़िया गुज़र जाएँगी...मगर इस समस्या का निदान नहीं निकलेगा..और जिसका भुगतान भुगतेंगी आने वाली पीढ़िया और वर्तमान आम निरीही कश्मीरी ..जो ऊपर वाले से भीख मांगेंगे और कहेंगे ..


या अल्लाह इस स्वर्ग से तेरा नरक भला......





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ज़रा सोचिये


·         कुछ दिनों पहले यासीन मालिक ने कश्मीर के लालचौक पर तिरंगा फहराने की धमकी दी, वहा के मुख्यमंत्री ने भी उनका समर्थन कर दिया कोई कुछ नहीं बोला सिवाए उस पार्टी के जिसके राजनितिक अजेंडे में राष्टीय मूल्यों के लिए तो नहीं लेकिन पार्टी मूल्यों के लिए यह शामिल था,जिस पर अभी राजनीति ज़ारी है .अकसर सयद अहमद शाह गिलानी और अरुंधती राय जैसे लोग राष्ट के विरुद्ध वयांवाजी करते है, तब भी कोई बात नहीं,लेकिन वियानक सेन जैसे लोग पर नक्सलियों के सन्देश वाहक के आरोप में ही "राष्द्रोह" का मुकदमा लाद दिया जाता है. अज़मल कसाब और अफज़ल गुरु जैसे लोगो का दोष सिद्ध होने के बाबजूद उन्हें फांसी पर नहीं चढ़ाया जाता है .लेकिन एक सोची समझी योजना के तहत किसी खास संगठन को अत्तंकी करार देने की सुनियोजित मुहिम शुरु कर दी जाती है ..सरकार जाँच एजेंसी को अपनों को बचाने और विरोधियो को फसाने के लिए उपयोग करती है....क्या यही सेकुलर इंडिया और फ्री इंडिया का सिधांत है जो हमे हमारे संविधान से हमे मिला है ...क्या आपको नहीं लगता सेकुलर और कॉमुन्लासिम का उपयोग वोट बैंक की राजनीति से प्रभावित है.....एक तरफ एक लाख चिहातर हज़ार करोर रुपए के घोटले को केग की गलती मान ली जाती है..तो वही दुसरे तरफ मुंबई हमले में शहीद हर हेमंत करकरे की शहदात पर सवाल उठा दिए जाते की उन्हें किसी धार्मिक संगठन ने मारा है,और सबुत तक पेश कर दिए जाते है ...अस्सी हज़ार करोर के कॉमनवेल्थ घोटाले जाँच का ड्रामा शुरु हो जाता है..हर दुसरे तीसरे महीने मुद्रा इस्फृति की दर अपना नया रिकॉर्ड कायम करती है.....इन सवालों से त्रस्त आखिर आम इन्सां करे तो क्या करे...शायद वही जो संगठनात्मक रूप से असीमानंद जैसे लोगो ने किया और निजी स्तर पर पूर्णिया के विधायक की हत्या करने वाली उस महिला ने...दोनों के कृत्यों को कही से भी उचित नहीं ठराया जा सकता है..लेकिन सोचने वाली वाली बात ये है की आखिर लोग ऐसा आत्मघाती कदम क्यों उठाते है...क्यों किसी को आपने जान की भी परवाह नहीं होती है..क्यों लोग अपना आगे पीछे भी नहीं सोचते है...शायद कही कही आज का शासन . आज की पार्टिया अपने हितो और स्वार्थो के लिए सामाजिक एवं राष्टीय हितो की क़ुरबानी देने को तयार है.....आपका क्या कहना है....ज़रा सोचिये ...??

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